संदेश
सहज होना - कविता - संजय राजभर 'समित'
सहज रहना बहुत ही मुश्किल काम है हर वक्त काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा से लड़ना पड़ता है, एक ईश्वर और एक मानव में बस एक यही फ़र्क़ ह…
स्वार्थी मनुष्य - कविता - सूर्य प्रकाश शर्मा
मानव ने पूरी धरती पर, आधिपत्य है जमा लिया। पूरी पृथ्वी पर मानव ने, बस अपना घर बना लिया॥ यद्यपि ईश्वर ने मानव के– साथ और भी भेजे थे। पश…
हे मानव - कविता - सचिन कुमार सिंह
हाड़ माँस के इस झोली पर, हे मानव! हो क्यों इतराते? रक्त धरा की वैतरणी में, जीवन रूपी नाव चलाते। झोली एक दिन फट जाएगी, नौका वैतरणी तट प…
बंधन - कविता - डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा'
अपनों को ही मार रहा यह लिए डोलता आयुध साज। मिलता जो कमज़ोर उसे ही हासिल करने की चाहत है। कहाँ दया ही उसके दिल में देता कब किसी को राहत …
जीव और प्राणी - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
हर जीव, हर प्राणी का जीवन आधार है जल, जंगल, ज़मीन, मानव ही प्राणी कहलाते बाक़ी सब हैं जीव। कहते हैं चौरासी लाख योनियों के बाद फिर मानव त…
हाउ मैन इज़ सोशल एनिमल - कविता - पंकज कुमार 'बसंत'
मनुज-स्वान-गर्दभ-उलूक की निर्धारित थी पहले सम वय, सोच समझ कर प्रभु ने की थी, सबकी चालीस वर्ष वय, तय। सभी मगन थे, कभी लगन में, जीवन में…
मानव मूल्य - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
बहुत अफ़सोस होता है मानव मूल्यों का क्षरण लगातार हो रहा। मानव अपना मूल्य स्वयं खोता जा रहा है, आधुनिकता की भेंट मानव मूल्य भी चढ़ता जा…
पर्यावरण और मानव - घनाक्षरी छंद - अशोक शर्मा
धरा का शृंगार देता, चारो ओर पाया जाता, इसकी आग़ोश में ही, दुनिया ये रहती। धूप छाँव जल नमीं, वायु वृक्ष और ज़मीं, जीव सहभागिता को, आवरन क…
मानवीय संवेदना - कविता - कार्तिकेय शुक्ल
मैंने समझा, महसूस किया और पाया कि मानवीय संवेदना से अधिक मधुर और महत्वपूर्ण; इस दुनिया में कुछ भी नहीं। नहीं रखता महत्व कुछ और जितना क…
प्रकृति और मानव - दोहा छंद - महेन्द्र सिंह राज
समय बहुत विपरीत है, बुरा सभी का हाल। सावधानी रखो सभी, चलो सभलकर चाल।। इक दूजे की मदद ही, हो मानव का कर्म। कोरोना बन घूमता, आज मनुज क…
मानव के दुष्कृत्य - कविता - विनय "विनम्र"
क्या रचा था प्रकृति ने पहुँचा कहाँ इंसान है, कफन में लिपटा हुआ ख़ुद को मानता भगवान है। नदियों को विष से सींचकर संवेदना को पी गया, वृक्ष…
मानव - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध
माना जीवन कठिन और राहें पथरीली। पाँव जकड़ लेती है अक्सर मिट्टी गीली।। मुश्किल होते हैं रोटी के सरस निवाले। पटे पुराने गज दो गज के शाल-द…
मानव की अभिलाषा - गीत - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
मानव की जिजीविषा अनंत पथ, केवल जीवन उड़ान न समझो। नित अटल निडर निर्बाध लक्ष्य पथ, ख़ुशियाँ ज़न्नत निर्माणक समझो। उन्मुक्त इ…
नयापन की तलाश - कविता - मधुस्मिता सेनापति
मानव हैं हम हमें थोड़ा नहीं कुछ अधिक चाहिए रिश्ते अब हो चुके हैं पुरानी इसमें हमें परिवर्तन चाहिए...!! आज जो हैं उसमें बदलाव चाहिए ज…
मैं - कविता - नीरज सिंह कर्दम
काश ! कोई पूछे मुझसे कि मैं क्या हूँ ? मैं कौन हूँ ? मैं सर उठाकर बताने में असमर्थ हूँ । क्योंकि मैं इंसान नही रह गया हूँ । मैं हिंसा,…
प्रकृति और मानव - कविता - अनिल भूषण मिश्र
असंख्य जीव प्रकृति ने उपजाया सब में बुद्धि का संचार कराया।। मानव भी उनमें एक समाया पर बुद्धि में वह रहा सवाया।। अतिरिक्त बुद्धि से…
जाति - कविता - प्रीति बौद्ध
यह जो हमारी जाति है। वह कभी न जाती है।। इस जाति ने बहुत ही सताया है ऊंचे पदों का अपमान कराया है यह किसी ने षड्यंत्र रचाया है कुदरत ने …
वहशी मानव - कविता - भागचन्द मीणा
कहते हैं आदित्य मनुज तुम, कौन राह पर निकले हो बदल चुके हो अन्धकार में, असुर राह पर निकले हो। लालच में अंधे हो कर तुम, खुद को कितना बदल…
मानव परिकल्पना - कविता - विनय विश्वा
ये दुनिया सूरज, चाँद, तारे है अनंत ब्रह्मांड न्यारे। मानव की है परिकल्पना अधूरी बार-बार करते वो सिद्धि पूरी। कभी ग्रह नक्षत्रों की खोज…
मानव स्वभाव - कविता - कुन्दन पाटिल
सोचता हूँ, खयालों मे डुब जाता हूँ। खयाली पुलाव मन हि मन पकाता हूँ।। अच्छे विचारों से मन प्रफुल्लित हो जाता हैं। खुशियाँ और आनंद कि बहा…
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