मानव के दुष्कृत्य - कविता - विनय "विनम्र"

क्या रचा था प्रकृति ने
पहुँचा कहाँ इंसान है,
कफन में लिपटा हुआ
ख़ुद को मानता भगवान है।

नदियों को विष से सींचकर
संवेदना को पी गया,
वृक्ष को निर्मूल करके
स्वयं तक हीं जी गया।

अब लघु कृमि के कोप से
बिल्कुल व्यथित संत्रस्त है,
श्वास तक को जूझता
अपने दुष्कर्म से ये पस्त है।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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