मानव - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध

माना जीवन कठिन और राहें पथरीली।
पाँव जकड़ लेती है अक्सर मिट्टी गीली।।

मुश्किल होते हैं रोटी के सरस निवाले।
पटे पुराने गज दो गज के शाल-दुशाले।।

खुले व्योम के नीचे अथवा नाला तीरे।
भयाक्रांत हो श्वान सरिस दिन-रात अधीरे।।

गाली मार लताड़ अमानुष दुखिया जीवन।
सदा पहुँच से बाहर उनके रहता साधन।।

इज़्ज़त के दो बोल कान तक कभी न आते।
सूअर उल्लू गधा सरिस संबोधन पाते।।

संविधान सत्ता शासन सरकारें आतीं।
सर्वोदय अन्त्योदय के सपने दिखलातीं।।

काग़ज़ पर अँगूठा, अँगूठे पर काग़ज़।
उदर पूर्ति उपक्रम ही देशाटन अथवा हज।।

दीन दुखी को हाथ बढ़ा करके अपनाएँ।
इनको गले लगाकर हम मानव कहलाएँ।।

डॉ. अवधेश कुमार अवध - गुवाहाटी (असम)

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