असंख्य जीव प्रकृति ने उपजाया
सब में बुद्धि का संचार कराया।।
मानव भी उनमें एक समाया
पर बुद्धि में वह रहा सवाया।।
अतिरिक्त बुद्धि से वह इतराया
अविष्कार का नित कदम बढ़ाया।।
सब पर अपना अधिकार जनाया
अम्बर और समन्दर में भी पैर जमाया।।
मान लिया अपने को अजेय
नहीं रहा उसका कोई श्रद्धेय।।
मिल गयी जो शक्ति उसे विज्ञान की
तो परवाह न की किसी परिणाम की।।
पर्यावरण में ख़ूब जहर मिलाया
सब पर अपना कहर बरपाया।।
खुद अपने ही विनाश का हथियार बनाया
अपनी ही माँ को दिन रात रुलाया।।
फिर एक तुच्छ जीव कहीं से आया
उसको अपना रूप विकराल दिखाया।।
डर कर मानव अपनी बिल में समाया
महीनों वह प्रकृति को नजर न आया।।
बंद हुए उसके बाहर आने जाने
बंद हुए उसके मिल कारखाने।।
भूषण तब प्रकृति धीरे से मुस्काई
मानो रंगत उसकी वापस आयी।।
साफ़ हुई नदियाँ पहाड़ नज़र आये
साफ़ हुई हवा वन्य जीव मुस्काये।।
अब तो सोचो मानव अपनी जिम्मेदारी
क्या है तेरी प्रकृति में भागीदारी।।
तू अपने को केवल भस्मासुर बना रहा
विकास नहीं विनाश का पथ अपना रहा।।
अनिल भूषण मिश्र - प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)