हाड़ माँस के इस झोली पर,
हे मानव! हो क्यों इतराते?
रक्त धरा की वैतरणी में,
जीवन रूपी नाव चलाते।
झोली एक दिन फट जाएगी,
नौका वैतरणी तट पाएगी।
भौतिकता के अहम में मानव,
बना जा रहा क्रूर दानव।
है चैतन्य को भूल गया तू,
भौतिकता में घुल गया तू।
ख़ुद की शक्ति को पहचानो,
अंतर्मन और ध्यान को जानो।
भारत के तुम प्राण को जानो,
सहज साधना, व्यायाम को जानो।
ऋषि परंपरा की तुम मानो,
चार सत्य पुरुषार्थ अपना लो।
सचिन कुमार सिंह - छपरा (बिहार)