संत और शैतान मैं ही हूँ - लेख - डॉ॰ सुनीता सिंह

संत और शैतान मैं ही हूँ - लेख - डॉ॰ सुनीता सिंह | Article - Sant Aur Shaitan Main Hi Hoon - Dr Sunita Singh
संत कौन है...? हमारे मन में यही बात बार-बार उत्पन्न हो रही थी। रह रहकर अंदर से आवाज़ आती कि संत कौन है? क्या मैं हूँ संत? अगर मैं संत हूँ तो यह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सज जो मुझ में विद्यमान है यह क्या है? क्या मैं उनसे मुक्त हो सकता हूँ? अगर मैं चाहूँ तो क्या अपने अंदर के उस शैतान को पहचान सकता हूँ? जिसकी वजह से हम पूरे संसार में अप्रिय हो जाते हैं।
 अपने वाणी पर क़ाबू नहीं रख पाते हैं।
ख़ुद पर संयम रखना मुश्किल हो जाता है, कि मैं इस संसार में आख़िर किस लिए आया हूँ? क्या यही है मेरा असली अस्तित्व?
पूरी ज़िंदगी अपने ही बनाए हुए जाल में, अपने ही विचारों में उलझते रहना, अपनी भावनाओं को कुचलना दूसरे की ख़ुशामद में ख़ुद को मारना।
तरह-तरह के प्रश्न मन को परेशान कर रहे थे। समझ नहीं आ रहा था कि मेरा वजूद कहाँ है?
किस में है?
आख़िर वह कौन-सी चीज़ है जिसकी हमें तलाश है? 
क्या ईश्वर ने इस दुनिया में किसी को ऐसा बनाया है कि जिससे मिलकर हम अपनी परिपूर्णता को प्राप्त कर सकते हैं?
अपना अधूरापन बाँट सकते हैं, अपने मन की भावनाओं को महसूस करा सकते हैं, उसके सुख दुख को अपनाकर ख़ुद को उसके लिए समर्पित कर सकते हैं।
हमें इस दुनिया में हर चीज़ एक दूसरे से बंधी हुई लगती है ऐसा लगता है की प्रकृति का भी यही नियम है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए समाज के बनाए नियमों पर खरा उतरना पड़ता है। ख़ुद को ऐसा बनाना पड़ता है कि भावनाएँ कुछ हैं ही नहीं।
यहाँ तक न जाने कौन-कौन से उदाहरण दिए जाते हैं और दीप की तरह अपना अस्तित्व स्थापित करना होता है जो कि बहुत आसान नहीं होता है, हमें अपने कर्तव्य में अपनी भावनाओं को छुपाना पड़ता है। क्योंकि एक कर्म योगी वही होता है जो ख़ुद को संसार के बने रीति-रिवाज़ और परंपरा का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन को ख़ूबसूरती से निभाए, ना कि हर बंधन हर रिश्ते को तोड़कर एक सन्यासी की तरह जीवन बिताए, किसी जंगल में भटके। क्योंकि इंसान जब तक जीता है, वह अपने मन के जंगल में वैसे ही भटकता रहता है। अपने विचारों से लड़ता रहता है तरह-तरह की उलझन में ख़ुद को संभाल नहीं पाता।
अगर यहीं हर इंसान जागृत हो जाए तो उसे ना तो जंगल में भटकने की आवश्यकता है, और ना ही इस प्रकृति रम्य संसार को बहिष्कृत करने की ज़रूरत है। हमें दूसरों की बनाए हुए नियम में पड़ने की ज़रूरत ही ना पड़े, हम अपने विचारों को स्वतंत्रता पूर्वक विकसित कर सके अपने लिए ख़ुद आगे बढ़ने का मार्ग बना सके, अपनी इच्छाओं को विकसित कर सके। यह सच है कि इंसान के अंदर उसके दो रूप होते हैं–  एक संत का और दूसरा शैतान का।
जब हम अपनी भावनाओं से आगे बढ़कर एक मर्यादित कर्मपथ पर होते हैं तो पाते हैं कि संसार का हर जीव उस ईश्वर का बनाया हुआ है जिसका अंश मुझ में विद्यमान है।
हम सभी के सुख दुख को बहुत ही आसानी से महसूस कर सकते हैं।
ख़ुद को एक दूसरे से जोड़ सकते हैं, ख़ुद में ऐसी प्रवृत्ति विकसित कर सकते हैं कि हमारे मन में किसी भी प्रकार का विकार पनपने का अवसर ही ना पाए।
जब हमारी मनोदशा ऐसी अवस्था में पहुँचती है, तो एक चेतना विकसित होती है– कि अपना अस्तित्व तभी तक है जब तक हमारे मन में, हमारे विचारों में शैतान ज़िंदा है।
यह शैतान हमें अपने स्वार्थ और अकड़पन में ज़िंदा रखता है, लेकिन जिस दिन हम अपने आप को इस शैतान से बाहर करते हैं, उसी दिन हमारा अस्तित्व ख़त्म हो जाता है।

हम पाते हैं कि हमारा अस्तित्व तो सिर्फ समर्पण में है, वह समर्पण चाहे विचारों का हो या भावनाओं का हो, उसमें डूबने के बाद हमारा अस्तित्व उसी में समाहित हो जाता है, जिसके लिए वह जागृत हुआ हो।
फिर हम और हमारा वजूद समाप्त हो जाता है। यह समर्पण  सांसारिक भी हो सकता है और आध्यात्मिक भी।
इंसान में जब यह अवस्था विकसित हो जाती है तो उसकी आत्मा प्रज्वलित होती है और यही प्रकाश उसे संत की उपाधि से सुशोभित करवाता है।
अंततः हमको ज्ञात होता है कि संत और शैतान मैं ही हूँ।
यह मुझमें ही शामिल मेरे ही दो रूप हैं, जिसके उत्पन्न होने में हमारे विचारों और परिस्थितियों का पूर्ण सामंजस्य होता है।

डॉ॰ सुनीता सिंह - बस्ती (उत्तर प्रदेश)

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