हाउ मैन इज़ सोशल एनिमल - कविता - पंकज कुमार 'बसंत'

मनुज-स्वान-गर्दभ-उलूक की
निर्धारित थी पहले सम वय,
सोच समझ कर प्रभु ने की थी,
सबकी चालीस वर्ष वय, तय।
सभी मगन थे, कभी लगन में,
जीवन में गाते मुस्काते,
किंतु स्वान-गर्दभ-उलूक का 
मन भरा बीस साल बिताते।

बीस साल के बाद प्रकृति सह
समय, संबंधी-मित्र-संतति,
बात-बात में उकता जाते
बदल गएँ नेह-स्नेह संगति।
ऊब गए जब बाक़ी तीनों
दौड़े मानव के घर आएँ,
बोले- "उम्र घटानें ख़ातिर
चलो, ख़ुदा से बात चलाऐं।"

बिदक गया मानव मन यह सुन
लेकिन मन ही मन मुस्काया,
इनकी छोड़ी उमर हमें ही
मिले, अगर हो प्रभु की माया।
मानव बुद्धिमान इस जग में
लेकिन उम्र सभी की सम क्यों?
मूढ-मूरख पशुओं के जैसे
मनुज उमर निर्धारित ही क्यों?

पहुँचे चारों प्रभु चरणों में,
आते-आते शीश नबाया,
बारी-बारी उन तीनों ने
अपनी-अपनी व्यथा सुनाया।
लेकिन बुद्धिमान मनुष्य चुप
बैठा, सभी की रहा सुनता,
कैसे, बढ़कर सौ हो जाएँ?
उमर हमारी, मन-मन गुनता।

बोझ उठाना हुआ असंभव
बोला- "गर्दभ काया हारी",
स्वान सुनाया अपनी पीड़ा
"वय धिक, हो कैसे रखवारी?"
"दिवस उजालों से घबड़ाता,
निशा जगत की जगमग वाली।"
कहा, उलूक कि "चैन नहीं अब
उमर बीस ही इज़्ज़त वाली।"

समझ गए सब नीति-नियंता
कहा, तथास्तु! अब यही होगा!
मुड़े और मानव से पूछा-
तुमने क्या पाया-क्या खोया?
मंद-मंद मुस्काता मानव
बोला- सब प्रभुवर की माया,
"अमर अगर मानव हो जाएँ
तो सुख पाए अपनी काया।"

संशय में पड़ गए विधाता
उमर गणित तो सौ ही निश्चित।
अगर अमर हो जाए मानव
नव्य सृजन में दिक़्क़त हो फिर।
लेकिन दास पास आ जाएँ,
खाली हाथ न लौटे घर से,
बोले- "इन तीनों की बाक़ी
साठ बरस भी तेरी अब से।"

अति प्रसन्न हो लौटे चारों
धरती पर यम के स्यंदन से।
भरे हृदय मुस्काते हँसते,
गदगद पाए अभिनंदन से।
तीनों ने प्रभु-कथा सुनाई,
प्रभु से हासिल प्रीत सुनाया,
मंद-मंद मुस्काता मानव,
स्नेही-जन को ''जीत" सुनाया!

नीचे सभी मगन, पर ऊपर
रहें विधाता सोच में चिंतित,
उम्र बढ़ी, दायित्व बढेगा,
अब कैसे हो कर्म सुनिश्चित?
चिंतन-मंथन करके हरि ने 
चित्रगुप्त को पास बुलाया,
गर्दभ-स्वान, शेष, उलूक का
कर्म मनुज का अब समझाया।

चित्रगुप्त ने ख़ाका खिंचा,
प्राप्त मनुज वय सौ वर्षों का,
मात्रा औसत माप गणित में
विमुक्त पशु से दायित्वों का।
चालीस चैन, बीस बोझ की,
बीस सुरक्षा, बीस तरस की।
खिंच गई तस्वीर नईं फिर
मानव की उम्र सौ बरस की।

विजयी मानव का तब से ही
झुका-झुका वय विजय-पताका।
"वय चालीस जीता चैन से
फिर बोझा ढोने लग जाता।"
गर्दभ हुआ मनुज अकुलाए
फिर आती कुत्ते की बारी
"उपार्जित धन-दौलत की तब
करनी पड़ती है रखवारी।"

जब आती वय उलूक वाली
"नज़रबंद दिन भर रहता है।
निमिष-निमिष यामा गहराती,
छत तकते जीवन कटता है।"
प्यारे दादा, पिता, सहोदर,
दादी, माँ सब, जीते सो कर।
चुप मुस्काए, आदर पाए,
खोज-ख़बर ले, पाए ठोकर।

पंडित-ज्ञानी-कुशल-विशारद,
मनुज चतुर भी है, चंचल है।
मगर दीर्घजीवन की नेमत
का, कारण तो बस लालच है।
इसीलिए हासिल मानव का
वरदान, अभिशाप है साबित,
और नहीं कारण कुछ इसका
बुद्धि-वीर ख़ुद से ही शापित!

"मानव में मानव बस उतना
जितना पाया था वह प्रभु से।
मानव से ज़्यादा जो मानव,
मानव को हासिल वो पशु से।
बुद्धिमान मनुष्य में ज़्यादा, 
पशु से हासिल मटेरियल है,
इसीलिए कहती है दुनिया,
मैन इक सोशल एनिमल है।"

पंकज कुमार 'बसंत' - मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार)

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