मैंने समझा, महसूस किया और पाया
कि मानवीय संवेदना से
अधिक मधुर और महत्वपूर्ण;
इस दुनिया में कुछ भी नहीं।
नहीं रखता महत्व कुछ और
जितना कि एक इंसान होना,
एक इंसान को इंसान समझना।
मैंने देखा क़रीब से लोगों को,
महलों के जैसे बनते,
और मड़ई के जैसे उजड़ते।
जहाँ तक जाती है
मेरी सोच की सीमा,
मैं यही कहूँगा कि
इंसान और इंसान होने में
होता है बहुत बड़ा फ़र्क़!
चुकानी पड़ती है क़ीमत,
उठाने पड़ते हैं ज़हमत,
तब कहीं जाकर तैयार होती है
मानवीय संवेदना की नींव।
कार्तिकेय शुक्ल - गोपालगंज (बिहार)