मानव मूल्य - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

बहुत अफ़सोस होता है
मानव मूल्यों का क्षरण
लगातार हो रहा।
मानव अपना मूल्य
स्वयं खोता जा रहा है,
आधुनिकता की भेंट 
मानव मूल्य भी 
चढ़ता जा रहा है,
मर रही है मानवता
रिश्ते भी हैं खो रहे
संवेदनाएँ कुँभकर्णी 
नींद के आग़ोश में हैं।
मानव जैसे मानव रहा ही नहीं
बस मशीन बन रहा है,
कौन अपना कौन पराया
ये प्रश्न पूछा जा रहा है।
मानव ही मानव का दुश्मन
बनकर देखो फिर रहा है,
मानव अब मानव कहाँ
जानवर बनता जा रहा है।
मिट्टियों का मोल भी
जितना बढ़ता जा रहा है,
मानवों का मूल्य अब
उतना ही गिरता जा रहा है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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