जीव और प्राणी - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

हर जीव, हर प्राणी का
जीवन आधार है
जल, जंगल, ज़मीन,
मानव ही प्राणी कहलाते
बाक़ी सब हैं जीव।
कहते हैं चौरासी लाख
योनियों के बाद
फिर मानव तन मिलता है,
फिर भी हमको लगता
मानव तन सबसे सस्ता है।
भ्रम का शिकार बन
गुमराह न हो जाओ,
मानव तन जब मिल गया
तो मानवता का धर्म निभाओ।
सबसे ज़हीन प्राणी हो
जानवर न हो जाओ,
जीव बनने का विचार क्यों करते
प्राणी बन जीवन बिताओ।
जीवन तो हर जीव अपना जीता है
प्राणी बनने को तरसता है,
तुम प्राणी क्या बन गए
शायद तुम्हें अच्छा नहीं लगता है।
तभी तो धरा पर प्राणी कम
जीव ज्यादा हो रहे हैं
अधिकांश प्राणी भी देखिए
जीव से भी बदतर हो गए हैं।
शायद इसलिए कि उन्हें
जीव और प्राणी में अंतर नहीं लगता,
इंसान और जानवर में 
तनिक फ़र्क़ नहीं दिखता।
हमसे अच्छे तो हिंसक जानवर हैं
जो अपना स्वभाव नहीं छोड़ते, 
प्राणियों के बीच रहकर भी
बेशर्मी नहीं करते।
और एक हम प्राणी हैं
जो कुछ सीखना नहींं चाहते,
प्राणी बनने के बजाय
जानवर को भी पीछे छोड़ना चाहते हैं,
लगता है जैसे प्राणी होने की
खीझ निकालने की कोशिश में ही
जीवन बिताना चाहते हैं।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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