संदेश
इक छोटा सा पत्थर हूँ - कविता - मोहम्मद रब्बानी
मैं विडंबनाओं की गली से निकला, इक छोटा सा पत्थर हूँ। मैं धोखों में धोखा खाया, इक पथ के कंकड़ सा हूँ। मैं दोस्तों से बिछड़ा हुआ, इक अक…
अपील - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
उसका अपील छल की स्याही से लिखा गया है जबकि मेरा अपील पीड़ा की आँसू से उसका अपील धूर्तता के गिनियों के साथ पेश किया जाता है मेरा अपील या…
नदी की व्यथा - कविता - हनुमान प्रसाद वैष्णव 'अनाड़ी'
शैलसुता में सरिता सुन्दर नागिन सी लहराती हूँ। दरिया खेत गॉंव वन सबको मैं जल पान कराती हूँ॥ मेरा जन्म पहाड़ों से, मैं मैदानों में आती …
मैं बुनकर मज़दूर - कविता - डॉ॰ अबू होरैरा
मैं बुनकर मज़दूर हुनर मेरा लूम चलाना। मेरी कोई उम्र नहीं है... मैं एक नन्हा बच्चा भी हो सकता हूँ जहाँ मेरे नन्हे हाथों में किताब होनी च…
पहाड़ का दर्द - कविता - सुनील कुमार महला
कभी ग़ौर से देखना पहाड़ के पाहन को धरती माँ के कोख से निकला दृढ़ता से स्थापित स्पंदन सुनना तुम कभी पहाड़ के पाहन का हृदय के भीतरी कोनों मे…
पक्षी की मन व्यथा - कविता - अनूप अंबर
तुम इंसानों को मुझ पर, बिल्कुल तरस ना आया है। मुझे बताओ मैंने किसको, दुख दर्द भला पहुँचाया है॥ मैं वृक्षों पर विचरण करता था, मीठे फल क…
आम आदमी की व्यथा - कविता - अनिल भूषण मिश्र
ये कविता नहीं सच्ची कथा है, आम आदमी की व्यथा है। आमदनी जब आवश्यकता से कम होती है, मन में चिन्ता बेचैनी स्वाभाविक होती है। रुकने लगते …
राष्ट्र की व्यथा - कविता - रामासुंदरम
मेरी ईंट बजा गए मेरा गारा ले गए, अपने रजवाड़ों के ख़ातिर मुझे खंडहर बना गए, मेरी कोशिकाओं में जो अनवरत नदियाँ प्रवाहित होती थीं वे आज शु…
अक्सर - कविता - ऋचा तिवारी
वो कहते हैं अक्सर, "औरत होने का फ़ायदा उठाती हूँ मैं", पर कभी औरत होने का नुक़सान, क्या देखा है तुमने! मौक़ा पाते ही, छेड़ने म…
व्यथा धरा की - तपी छंद - संजय राजभर "समित"
चीख रही धरती। कौन सुने विनती।। दोहन शाश्वत है। जीवन आफत है।। बाढ़ कभी बरपा। लांछन ही पनपा।। मौन रहूँ कितना! जख्म नही सहना।। मान…
कृषक व्यथा - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"
धरती सेवक, अन्न प्रदाता भूखो के तू कष्ट मिटाता, बारिश, गर्मी, शीतलहर में तू अपना कर्तव्य निभाता।। सूखे में खुद भूखा मरता बाढ़ में तू …
वेश्या व्यथा - कविता - मनोज यादव
शायद देह बाजार गंदे होते होंगे इसलिए किसी को इश्क मुकम्मल नही होता। बस एक आशियां होता है और बस एक रात की बात होती है।। नही कोई…
गरीब की व्यथा - कविता - मधुस्मिता सेनापति
जीते हैं हम गरीबी में सोते हैं हम फुटपाथों पर खाने के लिए, दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती, फिर भी रहते हैं हम टूटे हुए अध- जले …
गांव की व्यथा (वेदना) - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
जिस मिट्टी में जन्मा, पला-बढ़ा,खेला- कूदा, पढा़, संस्कारित हुआ , रोजी के नाम पर पर शहर की ओर कूंच कर गया। कमानी थी उसे रोटी, …