तुम इंसानों को मुझ पर,
बिल्कुल तरस ना आया है।
मुझे बताओ मैंने किसको,
दुख दर्द भला पहुँचाया है॥
मैं वृक्षों पर विचरण करता था,
मीठे फल को खाता था।
आज़ादी से झूम-झूम के,
हर पल ख़ुशियाँ मनाता था॥
मानव तुमको तरस ना आया,
मुझको जाल में फँसा लिया।
मित्र और परिवार से मेरे,
अब बोलो क्यूँ है जुदा किया॥
ये तेरा दिया हुआ भोजन,
मुझे बिल्कुल भी ना भाता है।
मेरे पंख फड़फड़ाने को तरसे है,
मुझे ये आसमान बुलाता है॥
हम तो पक्षी है बेज़ुबान,
प्रतिकार नहीं कर सकते हैं।
ऐसे जीवन से मौत है बेहतर,
अब ग़ुलाम नहीं रह सकते है॥
अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)