मैं बुनकर मज़दूर - कविता - डॉ॰ अबू होरैरा

मैं बुनकर मज़दूर
हुनर मेरा लूम चलाना।
मेरी कोई उम्र नहीं है...
मैं एक नन्हा बच्चा भी हो सकता हूँ
जहाँ मेरे नन्हे हाथों में किताब होनी चाहिए
वहाँ मैं हाथों से लूम चलाता हूँ
मैं एक जवान भी हो सकता हूँ
आप मुझे देख सकते हैं
लूम पर सुंदर साड़ियाँ बुनते हुए,
यदि वहाँ न दिखूँ
तो मुझे देख सकते हैं
शहरों के होटलों में बर्तन धोते हुए
रिक्शा चलाते हुए,
ग़ुलामी करते हुए।
मैं बूढ़ा भी हो सकता हूँ।
जहाँ मुझे बुढ़ापे में सुख चाहिए
वहाँ कंधे पर साड़ी का बोझ लिए
भटक रहा हूँ अंतहीन दिशा में।

डॉ॰ अबू होरैरा - हैदराबाद (तेलंगाना)

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