राष्ट्र की व्यथा - कविता - रामासुंदरम

मेरी ईंट बजा गए
मेरा गारा ले गए,
अपने रजवाड़ों के ख़ातिर
मुझे खंडहर बना गए,
मेरी कोशिकाओं में जो
अनवरत नदियाँ प्रवाहित होती थीं
वे आज शुष्क हो स्वयं में प्रताड़ित हैं।
मेरी आँखों के अश्क भी
जाने कब बेगाने हो गए,
मेरा रक्त भी आज, धब्बा बन कर सूख रहा है,
विकार, धिक्कार, मर्माघात
इन सभी अवयवों ने मुझे बाँध रखा है।
 
कैसे कहुँ अपनी व्यथा
क्यों कि, 
मैं मौन हूँ!

कभी लगता है कि
इस खंडहर की अस्मिता को तो बचाऊँ,
गिर रहे ईंटों को फिर चुनवाऊँ,
कोई तो राज मिस्त्री होगा
जो सलीक़े से उन्हें लगाएगा,
अपना राजवाड़ा नहीं बनाएगा।

पर इस बेगानी बस्ती में किसको ढूँढूँ,
सभी तो अपनी दौड़ में व्यस्त हैं,
कोई मुझसे लिपट कर आत्मीय बनता है
पर मुझे उसकी जेब में रखे
छेनी हथौड़ी से डर लगता है,
कोई मेरे गारे को चूमता है
कहता है की मैं उसकी धरोहर हूँ
पर ये शब्द भी क्यों सूख जाते हैं,
मैं समझ नहीं पाता हूँ
पर बे-इन्तहा पीड़ा तब होती है जब
मेरे रज कण में उत्पन्न हो
प्रभुता के शिखर पर पहुँच भी 
कोई अपनी उत्पत्ति को कोसता है,
टीस तो तब उठती है
जब अनर्गल प्रलाप विघटनकारी बन
मेरे छितरे लहू को सूखने नहीं देते,
मेरे कष्ट अट्टहास करते हैं जब
मेरी गरिमा का कोई बखान करता है,
किन्तु समय पा
प्रपंचों पर, मुझे ही धराशायी कर देता है,
कोई मुझे मेरा अखंड स्वरुप दिलाने का वचन देता है
तो कोई मेरा वर्चस्व लौटाने की।

पर मुझे तो प्रतीक्षा है
एक प्रहरी की
जो इन सभी से मुझे बचाकर
मेरे आहत स्वरुप को
सँवार सके, मेरी रुग्ण कोशिकाओं में
प्राण फूँक सके,
छद्म आततायियों का मुखड़ा
उतार फ़ेंक सके,
यही मेरा वैभव है, मेरा अस्तितत्व है,
धवल वस्त्र है
मुझे ऐसे ही नवाज़ सको तो नावाजो
मैं तुम्हारी आस्था का बिम्ब हूँ।

गर्व करो कि, यह खंडहर ही सही,
तुम्हारी ही धरोहर है,
बस अब मेरी ईंटों को मत गिराओ,
अगर हो सके तो कहीं से सद्भाव का
एक पुष्प ला
मेरी गिरी दीवार के प्राँगण में लगा दो,
शायद उसकी महक ही लाजवाब हो,
परिंदों को वापस ला सके
और फिर मैं अपनी शिखा से
धवल भागीरथी को पुनः अवतरित करा सकूँ,
सागर के चरण प्रक्षालय की
सकून से अनुभूति कर सकूँ।
 
रामासुंदरम - आगरा (उत्तर प्रदेश)

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