कृषक व्यथा - कविता - सूर्य मणि दूबे "सूर्य"

धरती सेवक, अन्न प्रदाता
भूखो के तू कष्ट मिटाता, 
बारिश, गर्मी, शीतलहर में
तू अपना कर्तव्य निभाता।।
सूखे में खुद भूखा मरता
बाढ़ में तू ही अश्रु बहाता, 
बेमौसम की मार झेलकर
हर घर तू रोटी पहुँचाता।।
जब तू प्यासा नभ को देखे
नजरो को आखिर तरसाते, 
फसल कटी पडी़ खेतों मे
ये काले काल बन जाते।।
विधाता का खेल अनोखा
कृषकों को मिलता है धोखा, 
हर तरफ प्रसृत है मकड़जाल
कृषक को घेरे विकराल व्याल।।
कृषक के तन पर फटा चीर
बस ढका हुआ है तेरा पीर, 
प्रबल वर्ग बस क्षुधा अधीर
तू भूखा लडता बन धीर वीर।।
वणिज तौलता परिश्रम का तोल
स्वर्ण का क्रय, माटी का मोल
तेरी मजबूरी घटाती है भार
तू ठगा गया है बारम्बार।।
हे कृषक तू प्रकृति का श्रृंगार
पर बनता व्यालों का आहार, 
देकर बस कौड़ी का भाव
कब तक पायेगा बस आभार।।
खेतों से बाजारों में गुणित भाव
सरकारी दुकान सौतेला बरताव, 
योजनाओं का बस कागजी खेल
प्रधान और अधिकारियों का मेल।।
अब फसल बीमा का नया दौर
लेकर ही देते सब अपना मोल,
कितना मिलता सरकारी लाभ
भ्रष्टाचारी ही करते हिसाब।।
कब तक फंदो में झूलेगा किसान
कब तक यूँ मौन जायेंगे प्राण, 
कब तक रोये करूणा निधान
कब होगा धरती पुत्र का मान?

सूर्य मणि दूबे "सूर्य" - गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos