सोते हैं हम फुटपाथों पर
खाने के लिए,
दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती,
फिर भी रहते हैं हम
टूटे हुए अध- जले मकानों में....!!
घर होती है हमारे
कभी किसी वृक्ष के नीचे
तो कभी होती है
सड़कों के बीच में
रहते हैं हम फुटपाथों पर
सोते हैं हम भूखे पेट
जीते हैं हम गरीबी में.....!!
बच्चे तरसते हैं किताबों के लिए
मन रहता है उनका पढ़ने में
सब कुछ रह जाती है अधूरी सी
ख्वाब बनकर इन सपनों की दुनियां में.....!!
बड़े शहरों में बना लेते हैं हम
बड़े-बड़े शानदार इमारतें
मजबूरी यह है हमारी किस्मत की
भूख लगने पर भी
खाना नसीब में नहीं होता
और हम सो जाते हैं
अपने ही टूटे झोपड़े में......!!
मधुस्मिता सेनापति - भुवनेश्वर (ओडिशा)