मैं विडंबनाओं की गली से निकला,
इक छोटा सा पत्थर हूँ।
मैं धोखों में धोखा खाया,
इक पथ के कंकड़ सा हूँ।
मैं दोस्तों से बिछड़ा हुआ,
इक अकेलापन सा हूँ।
मैं विडंबनाओं की गली से निकला,
इक छोटा सा पत्थर हूँ।
मैं अपनो से दूर हुआ,
इक अभिप्राय पाने के लिए।
मैं सहज रूप से अपने अंदर,
ख़्वाबों की माला सजा लिया हूँ।
मैं विडंबनाओं की गली से निकला,
इक छोटा सा पत्थर हूँ।
मैं कोरे काग़ज़ के पन्नों को,
अपनी यादें सुनाता हूँ।
मैं इस नफ़रती दौर में,
लोगों से हाथ मिलाता हूँ।
मैं विडंबनाओं की गली से निकला,
इक छोटा सा पत्थर हूँ।
मैं ऊँच नीच के भावों से,
गुज़रता हुआ तिनका सा हूँ।
मेरा बचपन ग़रीबी में निकला,
मैं अब भी ग़रीबी में ही हूँ।
मैं विडंबनाओं की गली से निकला,
इक छोटा सा पत्थर हूँ।
मोहम्मद रब्बानी - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)