नदी की व्यथा - कविता - हनुमान प्रसाद वैष्णव 'अनाड़ी'

शैलसुता में सरिता सुन्दर नागिन सी लहराती हूँ। 
दरिया खेत गॉंव वन सबको मैं जल पान कराती हूँ॥ 

मेरा जन्म पहाड़ों से, मैं मैदानों में आती हूँ। 
कृषकों की फ़सलों को पानी, पथिकों के मन भाती हूँ॥ 
पथरीले पथ पर भी चलती, गाथा आज सुनाती हूँ। 
दरिया खेत गॉंव वन सबको, मैं जल पान कराती हूँ॥ 

सभी धर्म मज़हब के मानव, मेरे तट पर आते है। 
पाकर पावन निर्मल पानी, मन्त्र मुग्ध हो जाते है॥ 
जन-जन के चेहरे पर ख़ुशियॉं, देख-देख इतराती हूँ। 
दरिया खेत गॉंव वन सबको, मैं जल पान कराती हूँ॥ 

मेरी धारा रोक-रोक कर, बाँध विशाल बनाते है। 
बिजली उत्पादन नहरी जल, खेत-खेत ले जाते है॥ 
दिनचर्या की शुरुआत मैं, मैं साँझ ढलाती हूँ। 
दरिया खेत गॉंव वन सबको, मैं जल पान कराती हूँ॥ 

मैंने धोया मानव को, मानव ही मुझको धो बैठा। 
कूड़ा करकट अपशिष्टो से, पावनता ही खो बैठा॥ 
जल ज़हरीला घाव घनेरे, सोच-सोच घबराती हूँ। 
दरिया खेत गॉंव वन सबको, मैं जल पान कराती हूँ॥ 

हनुमान प्रसाद वैष्णव 'अनाड़ी' - सवाई माधोपुर (राजस्थान)

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