पहाड़ का दर्द - कविता - सुनील कुमार महला

कभी ग़ौर से देखना पहाड़ के पाहन को
धरती माँ के कोख से निकला
दृढ़ता से स्थापित
स्पंदन सुनना तुम कभी
पहाड़ के पाहन का
हृदय के भीतरी कोनों में झंकृत हो जाएँगे
गुज़री हुई सदियों के क़िस्से
छिपा रखा है पहाड़ के पाहन ने
अपने खोल में
गुज़री सदियों के अनगिनत
रहस्यों को
पहाड़ के पाहन पर अटका है
समय का विशाल टुकड़ा
लेकिन तुम्हारी कमी यह है कि
तुमने कभी महसूस ही नहीं किया इस समय के टुकड़े को
प्रकृति का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है
तुम तो स्वार्थी बनकर तोड़ देते हो
बिछा देते हो
नदियाँ, बाँध, सुरंग और सड़कें बेपरवाह
महसूस करना कभी तुम पाहन की आत्मा
संवाद तुम करना कभी उससे
जो अटल, शांत खड़ा है
कभी बॉंची हैं तुमने कभी किसी पाहन की आत्मा?
कि तुम्हारे स्वार्थ को सहता है बिना किसी गिले-शिकवों के।
अरे! पहाड़ के पावन पाहन 
तुमने झेला है अनगिनत झंझावातों को
अपनी पीठ पर
सही है सर्दी, गर्मी, बरसात और वसंत 
मुझे पता है इन दिनों तुम पर क्या बीत रही है 
तुम खिन्न हो, तुम उदास हो
तुम्हारी आत्मा से अश्रुओं का ढेर बह रहा है लेकिन
तुम शिकायत करने के नहीं
सहने के आदी हो गए हो
लेकिन तुम अपने एकांत को बिल्कुल भी आत्मसात मत करो
क्योंकि मनुष्य के स्वार्थ की नहीं है कोई सीमा
तुम्हारे अतीत के पग
इस धरा पर जमे हैं
तुम्हारे इस पग को कोई मनुष्य हिलाएगा तो क्या
तुम यूँ ही बैठे रहोगे शांत, निस्तब्ध
तुम्हारी गतिहीनता का, तुम्हारी निस्तब्धता का फ़ायदा
उठाने का हक़
ईश्वर ने मनुष्य को तो कभी नहीं दिया
बारूद की सरसराहट तुम्हारे में गर घोली जा रही है
निरंतर
तो तुम उठो और खड़े हो जाओ
मौन साधे मत रहो
निर्माण से विध्वंस तक तुम तो साक्षी हो
सभ्यताओं, संस्कृतियों के
कितनी ग़लत बात है, किसी मनुष्य ने आज तलक तुम्हें
नहीं लगाया अपने गले
तुम्हें तोड़ा, मरोड़ा, कुछ भी नहीं छोड़ा
तुम्हारे अप्रितम सौंदर्य से
मनुष्य, समस्त प्राणी जगत हुआ है अभिभूत
लेकिन स्वार्थ की आरियों ने चीर दिया है
तुम्हारा कठोर बदन 
तुम्हारे पाहन का आज तलक न जाने कितने अनगिनत
पथिकों ने लिया है सहारा
तुम अपनी पीड़ाओं को अव्यक्त नहीं
कर लो व्यक्त सीधे सपाट शब्दों में
मुझे पता है
तुम बोल नहीं सकते
लेकिन
तुम बाँट दो
सृष्टि विनाशकों को प्रकृति का अभिशाप
ऐ पहाड़!
तुम्हारे पाहन, तुम्हारी माटी
की क़द्र न करने वालों को 
तुम दिखा दो कि तुम
तुम शांत, निस्तब्ध ज़रूर थे
लेकिन अब समय नहीं रहा है
तुम्हें लैस होना होगा
हथियार से
प्रकृति से छेड़छाड़ करने वालों के ख़िलाफ़
तुम इन्हें बताओ कि
विध्वंस आख़िर क्या होता है?

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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