व्यथा धरा की - तपी छंद - संजय राजभर "समित"

चीख रही धरती। 
कौन सुने विनती।। 

दोहन शाश्वत है। 
जीवन आफत है।। 

बाढ़ कभी बरपा। 
लांछन ही पनपा।। 

मौन रहूँ कितना! 
जख्म नही सहना।।

मानव होश करो।
जीवन जोश भरो।।

वैश्विक ताप तपा। 
संकट जीव नपा।। 

भौतिक लोभ बढ़ा।
आर्थिक गर्व चढ़ा।। 

सागर भी बढ़ता।
रोष कहाँ मढ़ता? 

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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