संदेश
मन-मंदिर - जलहरण घनाक्षरी छंद - रमाकांत सोनी
आस्था विश्वास रहते, प्रेम सद्भाव बहते, मनमंदिर में जोत, जगाते चले जाइए। महकते पुष्प खिले, ख़ुशबू जग में फैले, शब्द मोती चुन चुन, रिश्तो…
मन करता है - कविता - सौरभ तिवारी
बैठ पिता के काँधों पर इठलाने को मन करता है, मेले के खेल खिलौनों को घर लाने को मन करता है। पिता अगर फिर से मिल जाएँ उन्हें छुपा कर रख ल…
व्यथित मन - कविता - प्रवीन "पथिक"
हृदय और भी हो जाता व्यथित! जब सर्वस्व हारकर, जाता तुम्हारे समीप; कर देती कंटकाकीर्ण, उर को मेरे अपने शब्दभेदी बाणों से। प्रवीन "प…
मन के भाव - कविता - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी
मन जैसा नहीं है कोई पल भर में जो बदले, मन भावों का सागर है सागर में जन डोले, थोड़ा मनमौजी है मन थोड़ा स्वार्थ भाव तन घोले, मन जिनका …
मन में याद, याद में तुम हो - गीत - डॉ. कुमार विनोद
मन में याद, याद में तुम हो। तुझ में है सपने अन-गिन॥ आँगन में तुलसी का चौरा और नीम यूँ झूम रही है गिल्लू भागा दौड़ा फिरता गौरैया कुछ…
मन की दुरभिसंधि - कविता - विनय "विनम्र"
अट्टहास हँस रहा था, मन, जीत लिया सारा दर्शन, कुंठित कलुषित, माया लेकर, रक्त पिपासा मेरु श्रृंखला, नस नाड़ी भरपूर, अस्थि पन्जरों क…
चंचल मन - कविता - मिथलेश वर्मा
आगे निकल आया हूँ, इस कदर। रास्ता हुआ धुँधला, ओझल हुआ नगर।। क्या रख लाया था? विचारों की पोटली मे। ज़िन्दगी अब कुटने लगी है, वक़्त की ओख…
गाँव की गलियों में बसा मेरा मन - कविता - श्याम "राज"
गाँव की गलियों में आज भी घूमने का मन करता हैं बिता जो बचपन लोट आये आज भी मन करता हैं। माँ के हाथ की पापा के डंडे की मार खाने का आज भ…
निश्छल मन - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
मैं अबोध नादान हूँ तभी तो खुशहाल हूँ, छल, प्रपंच, ईर्ष्या, द्वेष से दूर अपने में मस्त महकती, चहकती हूँ। बस आप सब से विनती है मैं जैसी …
मन ही मन में - कविता - मयंक कर्दम
एक परिंदा उडता है मन में, साँसों से परे, जिस्म से दूर, घर से दूर, ख्वाब सा बुनता है। एक परिंदों का जाल, मन ही मन में, इधर-उधर शो…
अधीर मत हो मन - कविता - डॉ. कुमार विनोद
गोधूली की बेला में मेरी उम्मीदें डरपोक सांझा चुल्हे की तरह अर्थहीन जिंदगी के अस्तित्व को समेटे मुक्ति की छटपटाहट से उपजे सवालों पर स…
मन - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी
मन से उत्पन्न हुये कई विकार मन से बनी कितनी ही बातें, मन ही देता है अभिव्यक्ति जिसने दी कल्पना की सौगातें मन के लड्डू खाते ही कर्त्तव…
मैं और मेरा मन - कविता - श्रीकान्त सतपथी
जब जब भी देखा उसको क्यों दिल में हलचल सा होने लगा ख़्वाबों खयालों के मेले में क्यों बैचैन दीवाना सा होने लगा जो कुछ चाहा, सब है…
मानव-मन है अति मालिन, धैर्य खो रहे लोग - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
मजबूरी कैसी बनी, हो अति दीन रो रहे लोग। मानव-मन है अति मलिन, धैर्य खो रहे लोग।। यह है कैसी महामारी, जिसे भोग रहे हैं लोग। अपनों…