अधीर मत हो मन - कविता - डॉ. कुमार विनोद

गोधूली की बेला में 
मेरी उम्मीदें 
डरपोक सांझा चुल्हे की तरह अर्थहीन जिंदगी के अस्तित्व को समेटे
मुक्ति की छटपटाहट से उपजे सवालों पर
सशंकित कर देते  है।
बच्चों के सही दिशा में
जाना या न जाना
मेरे स्वप्न के पंख लगाकर 
वे निश्चित ही उड़ेगे
उड़ रहे है 
झ्द्रधुनष छूकर लौट आने की क्षमता भी है उनमें
हर सुबह उम्मीद बटोरता हूँ
शाम को अपने आपको बिखरता पाता हूँ
फिर भी डगमगाता नही हूँ मै 
आत्मबल प्रदान करते है ये सपने 
सपने सिविल सर्विसेज के
पी सी एस के
प्रोफेसर बनने के
और बहुत कुछ
जो मेरे निजी सपने थे
नितान्त अपने 
मै कैसे कह दूँ कि ये मेरे सपने 
क्यों पूरे नही हुये?
बोझ नही डालना चाहता 
इसीलिए बिना कुछ कहे ही 
उन सपनों को पूरा करने की उम्मीद लिये घूमता फिरता हूँ
मेरे सपने उनके सपने एक ही है
इसीलिये 
मेरा जमीर मुझे कहता है
आपके सपने उनके सपने के साथ सच होंगे
मन डगमगाता है पर
समझाता हूँ उसे
अधीर मत हो मन। 

डॉ. कुमार विनोद - बांसडीह, बलिया (उत्तर प्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos