सौरभ तिवारी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
मन करता है - कविता - सौरभ तिवारी
शनिवार, अगस्त 07, 2021
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है,
मेले के खेल खिलौनों को
घर लाने को मन करता है।
पिता अगर फिर से मिल जाएँ
उन्हें छुपा कर रख लूँगा,
फिर ना छूटे साथ कभी
मैं नेह पाश में कस दूँगा।
घर आते ही डाँट पिता की
खाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
पिता गए उस दिन से जैसे
हो गए रिश्ते टूटे-टूटे,
जिनको अपना बल माना था
उनसे हाथ सदा को छूटे।
पकड़ के उँगली साथ आपके
चलने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
रूठें तो हम कैसे रूठें?
अब कौन मनाने आएगा?
पिता के जैसे पुचकारे ना,
कोई ना नाज़ उठाएगा।
मन की बातें बच्चा बन
मनवाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
तीज और त्योहार हमेशा
पिता की याद दिलाते हैं,
जब घर के सब बच्चों को
कपड़े दिलवाए जाते हैं।
नए-नए कपड़े ज़िद करके
लाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
पिता के आशीषों से हमने
इज़्ज़त दौलत सब पाया है,
लेकिन सुख का जीवन उतना
पिता का जब तक साया है।
वही पुराने नीम तले
घर जाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
किस-किस ने क्या-क्या ना बोला
लेकिन कुछ ना कह पाएँ,
क्या क्या ठेस लगी सीने में
बातें वो किनको बतलाएँ।
पिता को अपनी पीड़ाएँ
बतलाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
जो आया सो जाता है
लोगों ने मुझको समझाया,
लेकिन ये मुझसे पूछो
क्या खोया या क्या ना पाया।
मन की बात क़लम लेकर
लिख जाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
मात पिता बिन दुनियाँ में
ना कोई अपना होता है,
इनकी क़ीमत वह जाने
जो असमय इनको खोता है।
परमपिता से माँग पिता को
फिर लाने को मन करता है।
बैठ पिता के काँधों पर
इठलाने को मन करता है।
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