मैं और मेरा मन - कविता - श्रीकान्त सतपथी

जब जब भी देखा उसको 
क्यों दिल में हलचल सा होने लगा
ख़्वाबों खयालों के मेले में
क्यों बैचैन दीवाना सा होने लगा
जो कुछ चाहा, सब है पाया
क्यों फिर अधूरा सा लगने लगा
मनमौजी मस्तानों सा बहता था हवाओं में
क्यों फिर रुककर बंद आँखों से
दीदार उसका करने लगा।

कभी कभी उसने भी तो गौर किया होगा
मुझसे ना सही पर अपने 
सहेलियों के संग में बात हुआ होगा
खुली आँखों से ना सही पर
छुप छुप के तो देखा होगा
कैंपस में ना मिले हम पर
इंस्टा फेसबुक में तो खोजा होगा।

श्रीकान्त सतपथी - सरायपाली, महासमुंद (छत्तीसगढ़)

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