चंचल मन - कविता - मिथलेश वर्मा

आगे निकल आया हूँ,
इस कदर।
रास्ता हुआ धुँधला, 
ओझल हुआ नगर।।

क्या रख लाया था?
विचारों की पोटली मे।
ज़िन्दगी अब कुटने लगी है, 
वक़्त की ओखली मे।।

चाहे क्या मन?
कुछ समझ नही आता।
बेवफ़ा भी हुई निंद,
आँखों को नही भाता।।

रात में देखा सपना, 
तो सुन्दर हरियाली थी।
खुला सुबह आँख तो, 
सुखी वहाँ डाली थी।।

विचारों का परिंदा,
कभी थकता नही।
खुदगर्ज है ये!
जो राह भटकता नही।।

मन को कहा मैंने, 
बंद कर अपने चोचले।
मन भी बोला!
भुलना होगा सुनहरी यादें, 
ये भी तू सोचले।।

कैसे बताऊ मन की, 
वो सजा दे गया।
बात माना मन की, 
और मन ही, दगा दे गया।।

है कोई जो,
रोक ले अपने मन को।
बिना सोच के ही, 
काट ले जीवन को...??

मिथलेश वर्मा - बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)

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