मन ही मन में - कविता - मयंक कर्दम

एक परिंदा उडता है मन में, 
साँसों से परे, 
जिस्म से दूर, 
घर से दूर, 
ख्वाब सा बुनता है।
एक परिंदों का जाल, 
मन ही मन में, 
इधर-उधर शोर मचायें, 
डोलता न घर बतायें।

एक सवाल तो पुछो
कोई?
क्या चाहता है वो, 
क्यों भहकता है वो, 
क्यों चहकता है वो, 
अब क्या कहेगा कोई, 
शायद सब गुलाम है उसके।

एक सुबह की कोशिश में, 
भर-पूर देख, सकूँ जब।
तो फ़क़स में पकड़ लूँगा उसे, 
ओर पहले पूछूँगा, 
तू वो ही है ना।
मन ही मन में, 
इधर-उधर शोर मचायें, 
डोलता न घर बताये।

मयंक कर्दम - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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