संदेश
ज़िंदगी के छूटने से डरता हूँ - कविता - केवल जीत सिंह
ताउम्र पीता रहा हूँ ज़िंदगी जीने का मीठा ज़हर अब ज़िंदगी के छूटने से डरता हूँ। ज़िंदगी जीने की उमर क़ैद काट रहा हूँ, जैसे-जैसे रिहा होने क…
डर ही डर - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"
कोरोना का आतंक अभी कम हुआ नहीं, कि शुरू हो गया, कुदरत का ये द्वितीय क़हर है। गाँव हो या शहर, नदी या नहर, फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चह…
खो देने का डर - कविता - सुनील माहेश्वरी
बस खो देने का डर और पा लेने की बैचेनी, ही है मेरा सबसे बडा़ डर। नित नयी चुनौतियों से लड़ता हूँ मैं यारों, मंज़िल को पा लेने से पहले डरता…
डर जाता हूँ - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन
डर जाता हूँ अक्सर- अपनी ही परछाई से बिछोह, दर्द और स्याह- रातों की तन्हाई से हुक सी उठती है दिल में महबूबा की बेवफाई से या रब मौत …
कहीं-कहीं पे - कविता - भागचन्द मीणा
मन बैचेन हो उठता है अनजान कहीं पे। सुकुन मानो गायब हो जाता है कहीं पे। शायद किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है मन वक्त जैसे ठहर जाता है कहीं…
मैं डर जाता हूं - कविता - सतीश श्रीवास्तव
रोज सबेरे जीवित पाकर मैं डर जाता हूं, खुद से हारा रोज शाम को मैं मर जाता हूं। रखवाले माली ने खाया देखो खेत यहां, देखा-देखी खेत स्…