मैं डर जाता हूं - कविता - सतीश श्रीवास्तव

रोज सबेरे जीवित पाकर मैं डर जाता हूं,
खुद से हारा रोज शाम को मैं मर जाता हूं।
रखवाले माली ने खाया देखो खेत यहां,
देखा-देखी खेत स्वयं का मैं चर जाता हूं।
करता रहा पाप पुण्य की बातों बातों में,
आत्म ग्लानि से इसीलिए तो मैं भर जाता हूं।
कैसे सीमाओं की ताकत टूट गई बोलो,
लक्ष्मण रेखा के भीतर से मैं हर जाता हूं।
आज नहीं तो कल आएगा सोचो तो अच्छा,
अच्छे सोच के कारण से ही मैं तर जाता हूं।
जिसको मित्र मान बैठा था वह दुश्मन निकला,
बार बार क्यों ऐसी गल्ती मैं कर जाता हूं।
कितने चेहरे नकली दोहरे मापदंड देखे,
किसका करूं भरोसा अब तो मैं घर जाता हूं।
अंधियारी है रात अमावस की काली काली,
उजियारे की आश में दीपक मैं धर जाता हूं।


सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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