डर ही डर - कविता - राम प्रसाद आर्य "रमेश"

कोरोना का आतंक अभी कम हुआ नहीं, 
कि शुरू हो गया, कुदरत का ये द्वितीय क़हर है।
गाँव हो या शहर, नदी या नहर, 
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहूँ पहर है।।  

पहाड़ी को पहाड़ में दबने, 
मैदानी को बहने का डर है। 
घर वालों को घर में, बाहर वालों को बाहर डर है, 
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहूँ पहर है।। 

कई घर-परिवार ज़मींदोज़ हर रोज़ हो रहे,  
बेवा कई विधवा, बच्चे अनाथ, रोज़ के रोज़ हो रहे।
खुले नैन नर, नार, निशाभर रोज़ सो रहे, 
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहूँ पहर पहर है।। 

सरिता उमड़ रही उफान में, हवा बदलती तूफ़ान है, 
हरा-भरा कल गाँव जहाँ, अब महज़ शमशान है। 
ख़ौफ़ यों कि पानी से भी डर, जैसे कोई ज़हर है,  
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहूँ पहर है।। 

परिश्रम में तन पसीने से पहले ही तर है, 
उस पर कोरोना का ताप कभी, कभी बरसात क़हर है। 
नारी हो या नर, बधू या वर, है जहाँ, वहीं ठहर है, 
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहुँ पहर है।।

सड़कें टूट रही, पुल बह गए, यातायात अवरुद्ध है, 
कुदरत की क्रूरता से अब जन-जन क्रुद्ध है। 
रही नहीं जल, वायु, धरा अब कहीं शुद्ध है, 
फँसी ज़िन्दगी, डर ही डर बस चहुँ पहर है।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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