खो देने का डर - कविता - सुनील माहेश्वरी

बस खो देने का डर
और पा लेने की बैचेनी,
ही है मेरा सबसे बडा़ डर।
नित नयी चुनौतियों से
लड़ता हूँ मैं यारों,
मंज़िल को पा लेने से पहले
डरता हूँ मैं यारों।
ना जाने क्यूँ किसी को खोने
से डरता है मन,
रोज़ाना सपने टूटने पर बिखरता हूँ मैं,
टूटने पर फिर से खड़ा होता हूँ मैं।
कैसे बाँधेगी ये मुश्किलों की दीवारे मुझे,
मुश्किलों से जूझना अच्छे से आता है मुझे।
हर दिन ख़ुद से एक नयी जंग लड़ता हूँ,
पर ना जाने क्या खो देने से डरता हूँ।
कोशिशें बेशक मेरी कमाल कर जाती हैं,
हर दिन नयी चुनौतियों से टकराती हैं।
मेहनत और हिम्मत दोनों मेरे साथी हैं,
फिर भी मन में क्यों बैचेनी है।
हर दिन एक नयी जंग लड़ता हूँ,
फिर भी खो देने से क्यों डरता हूँ।

सुनील माहेश्वरी - दिल्ली

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