कहीं-कहीं पे - कविता - भागचन्द मीणा

मन बैचेन हो उठता है अनजान कहीं पे।
सुकुन मानो गायब हो जाता है कहीं पे।
शायद किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है मन
वक्त  जैसे ठहर जाता है कहीं-कहीं पे।।

स्वीकार होता है हार जाना कहीं पे।
मददगार होता है हार जाना कहीं पे।
बहस के लिए पूरी दुनिया है तैयार
पर हार मान ली जाती है कहीं-कहीं पे।।

जहां निभाता है कोई रिश्ता कहीं पे।
मानो बस जाता है कोई अन्दर कहीं पे।
तेरे मेरे हिस्से की बात होती है जहां भी
डर लगता है दिलों दिमाग को वहींं पे।।

भागचन्द मीणा - बून्दी (राजस्थान)

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