वक़्त की आवाज़ है ये, समय की पुकार भी।
तोड़े नियम सृष्टि के, नर कर लो स्वीकार भी।
चीरकर पर्वत सुरंगे, सड़के बिछा दी सारी।
वृक्ष विहिन धरा हुई, बरसी भीषण बीमारी।
क़हर कुदरत का बरसा, तिरोहित हुआ प्यार भी।
वक़्त की आवाज़ है ये, समय की पुकार भी।
अतिथि को देव मानते, पत्थर को भगवान यहाँ।
ख़ुदग़र्जी में अँधा हो गया, कितना इंसान यहाँ।
भागदौड़ से भरी ज़िंदगी, लुप्त हुए संस्कार भी।
वक़्त की आवाज़ है ये, समय की पुकार भी।
कहाँ गया वो अपनापन, जोश जज़्बा हौसला।
मुस्कान लबों की खोई, भीड़ में भी नर अकेला।
प्रेम की बहती गंगा में, दिखावे का बाज़ार भी।
वक़्त की आवाज़ है ये, समय की पुकार भी।
स्नेह के मोती लुटाओ, प्रेम की गंगा बहा दो।
वक़्त के मारे मिले जो, आगे बढ़ गले लगा लो।
दो दिन की ज़िंदगी में, अब कर लो बेड़ा पार भी।
वक़्त की आवाज़ है ये, समय की पुकार भी।
रमाकांत सोनी - झुंझुनू (राजस्थान)