ये कैसी है कशिश जिसमें इक सुखन ढूँढ़ती हूँ मैं - ग़ज़ल - रेखा श्रीवास्तव

अरकान : मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
तक़ती : 1222  1222  1222  1222

ये कैसी है कशिश जिसमें इक सुखन ढूँढ़ती हूँ मैं,
मिले जहाँ दिल को सुकूँ ऐसा चमन ढूँढ़ती हूँ मैं।

तपता रहा मन का हरेक कोना तेरी जुस्तजू में,
भिगो दे आस का दामन वो जतन ढूँढ़ती हूँ मैं।

बेजान सा हो गया है ये दिल तेरे इंतज़ार में,
जगा दे तन में हलचल वही सिहरन ढूँढ़ती हूँ मैं।

न जाने कौन सा वो पल होगा कभी मुकम्मल,
इश्क़ में हक़ की दे सौग़ात वो छुअन ढूँढ़ती हूँ मैं।

ज़र्रा-ज़र्रा मोहताज रहा हर रस्मों के ऊसूलों में,
मोहब्बत में लुटा कर सब अब अमन ढूँढ़ती हूँ मैं।

बुझाए नहीं है चराग़ों को अभी तेरे इंतज़ार में, 
रहे रौशन उम्मीदों का दिया वो अगन ढूँढ़ती हूँ मैं।

मेरे ज़हन में बनी है बस तुझे पाने की 'रेखा',
रूह से रूह मिल जाए यही मिलन ढूँढ़ती हूँ मैं।

रेखा श्रीवास्तव - नई दिल्ली

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