लो आ गया सावन - कविता - रमाकान्त चौधरी

लो आ गया सावन,
खिल उठे उपवन, चहकी हरियाली।
पेड़ों को मिला नवजीवन
लो आ गया सावन।

आग बरसाते तपते भास्कर,
सिर पर तनी धूप की चादर।
गर्म हवाएँ, उड़ती रेत, हर जगह तपन,
सब ओर आँधियाँ तूफ़ानी बवंडर।
ढीट बादलों ने की सबसे अनबन,
लो आ गया सावन।

आनंदित मछलियाँ, सीप, मोती,
टर्राए मेंढ़क पोखरों पर।
खाने लगे भाव झाड़ियों के झुरमुट,
बोले सत्तैसा पेड़ों पर।
उफनाती नदी ने तोड़े तटबंधन,
लो आ गया सावन।

चहक उठे लड़कियों के झुंड,
बिखरी हँसी की फुहारे।
खिल खिलाहट से गूंजी बस्ती,
धरा को भिगोते मेघ सारे।
बहकती हवाओं में जागा बचपन,
लो आ गया सावन।

गाती घूम रही विरह के गीत,
पिया के विछोह में एक बावरी।
याद उन्हें मेरी क्यों आती नहीं,
बताओ मुझे कोई सखी री,
भर आलिंगन कौन करे चुंबन,
लो आ गया सावन।

बाग़ों में झूले झूलती बालाएँ,
गा गाकर गीत मेघा बुलाएँ।
अपरिचित ख़ुद की चढ़ती उम्र से,
देखकर सबको निच्छल मुस्काएँ।
अल्हड़पन उनका भिगोए तन मन,
लो आ गया सावन।

रमाकांत चौधरी - लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)

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