सुनो न - कविता - राशि गुप्ता

सुनो न...
मेरे भी हैं कुछ ख़्वाब, 
बंद पिंजरे में मैं तकती आसमान को हूँ, 
पूरे करने को वे मेरे अरमान...
सुनो न...

सुनो न...
मत बाँधों न मुझे, 
कर्तव्यों की ज़ंजीरों से, 
क्यूँ इज़्ज़त की दुहाई देते है मुझे, 
क्या लिखा है यही नसीब में मेरे, 
मैं पूछती हूँ हर बाबा संत फ़क़ीरों से।
सुनो न...

जिस्म तो मेरा उस रब ने तुम जैसा ही बनाया होगा, 
पर शायद सहनशक्ति और हिम्मत का खाँचा सिर्फ़ मेरे हिस्से ही आया होगा, 
थक जाती हूँ मैं भी करके सारे काम, 
पर फिर भी नहीं शिकायत,
बस... बस चाहिए...
थोड़ा सा सम्मान...
क्या इसकी भी मैं नहीं हक़दार...
बोलो न... सुनो न...

महिला दिवस के उपलक्ष्य पर स्टेटस लगा सम्मान जो तुम  जताते हो, 
इसकी ख़्वाहिश नहीं मुझे, बस ख़ुद से पूछना 
क्या मेरी ज़िन्दगी के, मेरे फ़ैसले को क्या तुम समझ पाते हो...?
नहीं चाहिए मुझे कुछ और अलग से, 
बस मेरा है जो अधिकार, 
वही मुझे दे दो न...
सुनो न...

चाहूँ तो छीन भी सकती हूँ, लड़ कर तुमसे हर बात मनवा भी सकती हूँ,
पर उस ग़ुस्से, अहम, तकरार में वो बात कहाँ 
जो तुम ख़ुद आगे बढकर कहो...
उड़ ये हैं तेरा आसमान...
बस इतनी सी है ख़्वाहिश...
तुम पूरी कर दो न...
सुनो न...

राशि गुप्ता - शालीमार बाग (नई दिल्ली)

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