मैं औरत हूँ - कविता - दीक्षा

मैं कोमल हूँ, कमज़ोर नहीं
मैं गर्व हूँ, मग़रूर नहीं
मैं औरत हूँ कोई डोर नहीं
बाँधके न रखो मुझे,
तोड़ सब ज़ंजीरे जाऊँगी
अँधेरे का सामना तो हो एक बार
हिम्मत की मशालें जला जाऊँगी।
इतिहास रचूँगी मैं ऐसा
एक बार आज़ादी मक़बूल तो कीजिए,
मैं मशहूर होकर दिखाऊँगी
एक बार जीने की इजाज़त तो दीजिए।
अब दुनिया ये बंधन में बाँधेगी नहीं,
क्योंकि मैं औरत हूँ कोई रिवायत नहीं।
अब सर पर घूँघट नहीं आज़ादी का ताज रखूँगी,
अब जीने का नया अंदाज़ रखूँगी,
सबसे आगे बढ़कर दिखाऊँगी
अब अपने सपनों से क़दम मिलाऊँगी।
मुकम्मल होगा ये हर सपना मेरा,
क्योंकि ख़्वाब भी तो है आख़िर अपना मेरा।
आफ़ताब की कीरणों सी हूँ
छिपूँगी नहीं
अब मैं रुकूँगी नहीं!

दीक्षा - शिमला (हिमाचल प्रदेश)

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