माँ - कविता - शीतल शैलेन्द्र 'देवयानी'

नौ महीने प्यार से कोख में रखकर,
जन्म देती है तुझे एक नारी।
नारी से फिर माँ बनकर,
ख़ुद अपने को धन्य समझती है नारी।

न कभी बोझ तुझे समझा न समझती है,
कोख में रखकर हर कष्ट सहती है।
स्वयं सहती है दर्द और तकलीफ़,
परन्तु आँच ना तुझ पर आने देती है।

हर युग में शायद यही एक रूप है नारी का,
आधुनिकता वाला रूप कहाँ समाज देख सकता है।
पर आज आधुनिक परिवेश और माहोल में,
रूप बदल कुछ आधुनिक सी बन गई है माँ।

आज घर आँगन और दफ़्तर दोनों एक साथ 
संभाल सकती है नई आधुनिक, अवतारी माँ।
कभी अन्नपूर्णा ‌तो कभी कौशल्या
पर अब विश्वकर्मा भी हो सकती है माँ।

घर में चौका चुल्हा तो क्या
दफ़्तर में प्रजेंटेशन भी दे सकती है।
राॅकेट जहाज है बस मामूली सी चीज़ें,
अंतरिक्ष में भी सफलता का परचम लहरा सकती है माँ।

कभी कल्पना चावला, इंदिरा तो क्या
अमेरिका में उप राष्ट्रपति का पद संभाल सकती है।
कभी वित्त मंत्रालय तो कभी
विदेश मंत्री का गरिमामय पद भी पा सकती है माँ।

आज पौराणिक कथा वाली नहीं है सिर्फ़, 
आधुनिकता में आधुनिक हो गई है मम्मा।
कोशिश है नज़रिए को अपने बदलने की,
वरना तो कब की विश्व में पताका लहरा चुकी है माँ।

हम सबकी प्यारी-प्यारी सी मासूम,
घर में देशी अंदाज तो है ही क़ाबिल-ए-तारीफ़।
परंतु समाज को बदलने की अधिकारी बन गई है,
भोली भा‌ली सी दिखने वाली जगत जननी माँ।

कुरितियाँ जगत में बहुत है फैली,
स्वयं को तो क्या जग को आईना दिखला सकती है।
गणित कंप्यूटर विज्ञान और अंतरिक्ष जैसे विषयों को
समझा कर बच्चों और बड़ों को बतला सकती है माँ।

लाड लडाती दुलार दिखाती सब बच्चों को एक सा
न भेद-भाव बेटे-बेटी में दिखाती है,
कभी पोथी कभी रामायण, महाभारत
संस्कारों से सुसज्जित गहनों का मोल सिखाती है माँ।

तरक़्क़ी की वह राह बताती
दिन रात बस ज्ञान का पाठ पढ़ाती है
कभी मातंगी कभी जगत कल्याणी
कभी महाकाली, भद्रकाली रूप भी धर जाती है अपनी माँ।।

शीतल शैलेन्द्र 'देवयानी' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

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