मान करो या अपमान करो - कविता - गणेश भारद्वाज

मैं नर की पूरक नारी हूँ 
नर से मेरी होड़ नहीं है,
भाव सरल सब सीधे मेरे
पथ में कोई मोड़ नहीं है।

मैं मालिन बाग बगीचों की
सबका मन बहलाने वाली,
मदमस्त पवन प्रेम भरी मैं
फूलों को सहलाने वाली।

कोमलता है गहना मेरा
मन में मेरे गाँठ नहीं है,
बह जाती हूँ नदिया सी मैं
रुकने वाला काँठ नहीं है।

रूप बराबर नर से मेरे
थोड़ा भी कम तोल नहीं है,
फिर भी मैं अबला कहलाऊँ
मेरा जग में मोल नहीं है?

नर को चेतन करने वाली
मैं घर को स्वर्ग बनाती हूँ,
मुर्झाए फूलों के मुख को
दे कोमल भाव सजाती हूँ।

मुझसे ही बल पाने वाले
जननी को अबला कहते हैं,
अपना ही वे मान घटाकर
अपमानित हो क्यों रहते हैं?

धरती से जन्मे सब पौधे
धरती की शान बढ़ाते हैं,
मेरे अपने ही कुछ बेटे
क्यों मेरा मान घटाते है?

कोमलता इतनी है साथी
हर साँचे में ढल जाती हूँ,
है क्षमता तन मन में इतनी
हर मौसम में पल जाती हूँ।

मंदिर व मंदिर के बाहर
दो रूप दिए क्यों जाते हैं?
नतमस्तक भालों वाले फिर
क्यों भाला लेकर आते हैं?

हे नर मैं पूरक हूँ तेरी
मान करो या अपमान करो,
मैं तुझसे हूँ तू मुझसे है
इतना तो तुम भी ज्ञान करो।

गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)

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