नारी - दोहा छंद - भाऊराव महंत

रोक सको तो रोक लो, नारी की रफ़्तार।
अब पहले जैसी नहीं, वह अबला लाचार॥

जब नारी चुपचाप थी, दिखता था संस्कार।
बदतमीज़ लगने लगी, बोली जिस दिन यार॥

नारी, नारी के लिए, अगर रहेगी मौन।
नारी मन की वेदना, तब समझेगा कौन॥

बच्चे, पति, भाई, पिता, मान सभी को श्रेष्ठ।
महिलाएँ देती रहीं, आहुति नित्य यथेष्ठ॥

आदिकाल से आज तक, करने मटियामेट।
पुरुषों ने नितप्रति किया, नारी का आखेट॥

नारी बचपन पूस-सा, और जवानी-जेठ।
प्रौढ़ा से वृद्धा हुई, ख़ुद के कान उमेठ॥

मुरझाई उस रोज़ से, नारी देह-सरोज।
जिस दिन की विज्ञान ने, गर्भपात की खोज॥

मत समझे अबला मुझे, यह सारा संसार।
अब मैं हर अन्याय से, लड़ने को तैयार॥

कोमल तन लेकर सखे, सहनशक्ति अत्यंत।
नारी आई भूमि पर, हो निर्माण 'महंत'॥

सहनशक्ति को त्यागकर, पार करी दहलीज़।
लोग उसे कहने लगे, भूली अरे! तमीज़॥

भाऊराव महंत - बालाघाट (मध्यप्रदेश)

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