प्रश्न नहीं, परिभाषा बदलनी होगी - कविता - अपराजितापरम

चाहती हूँ, उकेरना, औरत के समग्र रूप को,
इस असीमित आकाश में...!
जिसके विशाल हृदय में जज़्बातों का अथाह सागर,
जैसे- संपूर्ण सृष्टि की भावनाओं का प्रतिबिंब!
मगर उसके व्यक्तित्व की गहराई में कुछ रंग बिखर गए हैं!
कहीं व्यथा है, तो कहीं मानसिक यंत्रणा...
कहीं आत्म हीनता की टीस लिए...
सदियों से आज भी वह जूझती है,
अपने आत्मसम्मान के लिए...!
परिवार, समाज, मर्यादाओं में बंधी, 
वह पुरुष ही नहीं, औरत से भी तो छली गई!
क्यों विचलित नहीं करती वे सिसकियाँ?
जब उसके अस्तित्व को 
इंसान के भेष में नोच लेता है हैवान!
मगर, संवेदन हीन हो, तटस्थता से नई परिभाषा दे,
आगे बढ़ जाता है ये समाज!
अपनी शक्ति से अंजान, वह चूल्हे की आग- सी सुलगती, 
गुम हो रही है, इस मटमैले धुएँ के गुबार में!
बस... अब कोई प्रश्न नहीं!
औरत की यह परिभाषा बदलनी होगी!
समाज द्वारा निर्धारित मापदंड और पैमानों से परे,
अपनी मातृत्व शक्ति के साथ...
उसे ही मर्द को मर्दानगी के दायरे बताने होंगे। 
नए विचार और नए समाज को जन्म देना होगा। 
वही होगा, उसका समग्र रूप, इस असीमित आकाश में!

अपराजितापरम - हैदराबाद (तेलंगाना)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos