बोल के घर से निकला था,
पैसे कमा के आऊँगा।
कपड़ें, खिलौने लाऊँगा,
बच्चों को शिक्षा दिलाऊँगा।।
जब शहर मे कोरोना छाया,
पुरे देश को बंद करवाया।
रुका ज़मीन पर पहिया,
आकाश भी उड़ न पाया।।
कोरोना कितना क्रुर है,
विकट परिस्थिती मे मज़दूर है।
जब बंद हुआ शहर तो,
वो निकला अपने घर को।
पैदल ही नाप लिया उसने,
अपने इस सफ़र को।।
सूरज भी अपनी गर्मी को,
इन पर ही आज़माया।
सड़क पर नंगे पाँव चले,
सरकार को तरस न आया।।
कोरोना कितना क्रुर है,
विकट परिस्थिती मे मज़दूर है।
वो छोड़ गया, दम तोड़ गया,
अपनो से मुँह वो मोड़ गया।
बैठे थे जिसके इंतज़ार में,
वो डुब गया मंझदार में।।
शव घर पहुँच न पाया,
घरवाले इतन लाचार है।
कोरोना कितना क्रुर है,
विकट परिस्थिती मे मज़दूर है।।
मिथलेश वर्मा - बलौदाबाजार (छत्तीसगढ़)