मेरा गाँव - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

मेरा गाँव
मेरी बखरी,
बखरी के आगे,
लगत पौर
सुहावनी।
दादी कहे
पुकार के,
छीछौ ले के,
तब घर में
आवनी।
मठ्ठा की महेरी,
मक्का की रोटी,
और निपनिया दूध,
चना की भाजी में,
लासन मिर्च को
डरो बघार।
पुनिया मठ्ठा 
माँग के काम
चलावे,
महीनों में
कभी-कभी,
पर्वी त्यौहार पर
मिले समुदी
होता हर्ष अपार।
जड़काले जब
लागन लागे,
कोढे सजे
राख निकाली,
जैसे हो बाबा की धूनी।
पौर लगी सुहावनी।
बैठ के
कोढे पर,
चर्चा होवे अपार।
चलो भइया
भुनसरा को निकलो तारो,
देख पसर निकाली
ढोर एक हो
या होवे चार।
गेवडो की
गईया
हाक दई चौपाल।
छोटे बछेउ
रभा रभा के
करते है धमाल।
एक नेवते में
लिखें है नाम 
कई चार।
आपस में चर्चा
करते है
को को चल्हे यार।
काऊ की 
मेंढ टोर लई,
या चोरी से काटो बमूरा।
न्याय के लाने
अथाई पर,
पंच आवे चार,
पंचायत होवे,
ढाड धरा के
भओ फैसला,
अब कर लो 
तैयारी बावनी।
आँगन के आगे होवे पौर सुहावनी।
आयो बिहाओ मोड़ी को,
चकिया धर गई
घर घर द्वार।
बरा, कड़ी
पंगत में मूठा
भर बूरा और
घी परसे हाथ पसार।
टीका लेवे बड़े बूढे,
करते द्वारा चार।
भाँवर में
गाती नवल नवेली,
समधी को 
मीठी सुनावे गारी
और हल्दी से करती सरावोर।
विदा होत 
रोवे बाप मताई,
दे दे हिल्की,
माँ कहती,
बेटी दोऊ कुलन,
की लाज राखियो,
कबहुँ न करियो 
आना कानी
आँगन के आगे पौर सुहावनी।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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