श्रवण कुमार पंडित - टेढ़ागाछ, किशनगंज (बिहार)
एक समर अभी है शेष - कविता - श्रवण कुमार पंडित
मंगलवार, अक्टूबर 13, 2020
शहीद हुए वीरों के,
शौर्य मान अभी है शेष।
तरकश में शर कस चुका,
वार अभी है शेष।
धधकती, बिलखती रोष,
पर सत्ता है मदहोश।
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
आहत हुआ विश्व है,
आना अमन अभी है शेष।
इंसान में इंसानियत
की परख अभी है शेष।
व्याध होके घुमते लोग,
रखते है हैवानियत।
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
सत्ता हीन हो चुकी,
मुखोटों में रखें है भेष।
राते तो कट चुकी,
सहर होना अभी है शेष।
भूखें को रोटी न मिलती
नेता के सजे है मेज-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
आजादी मिल चुकी,
आजाद होनी अभी है शेष।
नैतिक पाठ पढ़ चुका,
नैतिकता आनी है शेष।
बढ़ते जाते बलात्कारी,
सियासत है खामोश-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
उर स्पंदित हो चुका,
चिर स्पंदन अभी है शेष।
मन व्याकुल हो उठा,
पाना रोक अभी है शेष।
चोटिल व्यथित पड़ा,
हास्य करती उमड़ी भीड़-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
भ्रष्टाचार बढ़ चुका,
शिष्टाचार अभी है शेष।
पत्रकार बढ़ गया,
दिखाना सत्य अभी है शेष।
चर्चित रहते वो मुद्दें,
जिनकी सतह से मेल नहीं-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
बेटी उन्नीस की हुई,
शादी दिलानी अभी है शेष।
इंटर पास कर चुकी,
स्नातक होनी अभी है शेष।
दहेज़ की अग्नि में
जलते पिता के हर चाहते -
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
बेटा जन्म पे ख़ुश हुआ,
बेटी पे अभी है शेष।
एक के रंग पे भेद नहीं,
दूजे के रक्खे है भेद।
कदम बेटी बढ़ाने लगी,
लोगों का बस साथ रहें-
बेटा की चाह जान चुके,
बेटी की न रक्खे शेष।
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
जो रिश्ते बन चुके,
उसे निभाना अभी है शेष।
ढूंढ़ते है जो पनाह,
आश्रय देना उसे है शेष।
भवन तो खाली पड़े,
राहों में रात बिताते लोग-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
राष्ट्र निर्मित जो कर रहे,
हमें जानना उन्हें है शेष।
शिक्षक निंदित हो रहे,
पाना आदर अभी है शेष।
हुनर को सम्मान दे,
बच्चों को भी यही कही जाये-
चलते जो नेक राह पे,
एक चक्की में न पिसा जाए-
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
कुरान उर्दू में पढ़ चुके,
बताना हिंदी में अभी है शेष।
वेद हिंदी में पढ़ चुके,
समझाना उर्दू में रखें है शेष।
भाषा को धर्म से न जोड़ें,
नैतिकता को जानें हम।
तटस्थ रहके धर्म के,
खुद को अब तो पहचाने हम।
राष्ट्र धर्म से बढ़के कोई,
धर्म न होता अपने देश का,
लड़-लड़ के मरते है वही,
जो न जाने अर्थ धर्म का।
धर्म नैतिकता मान रहे,
संवैधानिक' माननी है शेष।
एक समर तो हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
विधवा अभिशाप बना,
दिलाना न्याय अभी है शेष।
यौवन चिता,खुद मरघट बनी,
क्या और भी है शेष।
सुनी मांग श्वेत वस्त्र पहन,
वो विलाप,चीत्कार रही -
सबकुछ तो करवा चुके,
पर मान मेरा अभी है शेष।
एक समर हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
जीवन कैसे गुजार रहे,
ये जानना अभी है शेष।
लानत के खाना खा चुके,
भरपेट खाना है शेष।
नींद चैन का छूटा,
सड़कों पर जीवन गुजार रहे।
पढ़ाई-लिखाई छोड़ के,
माथे में बोझ ढो रहे।
बाल मजदूर मजबूर है,
ये समझना हमें है शेष।
एक समर तो हो चुका,
एक समर अभी है शेष।
किन्नर की मजबूरी को,
जानना हमें है शेष।
समाज में हक मिले,
न्याय कभी रहे न शेष।
ताली गाली से जलता चूल्हा,
सपने होते न पूरा,
दर-दर की ठोकरे खाते,
मान सदा रहता अधूरा।
जीवन श्रापित हो चुका,
धारण करते झूठा वेश।
एक समर तो हो चुका,
एक समर अभी है शेष।।
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