आह्वान - गीत - संजय राजभर "समित"

आओ मिलकर कदम बढ़ाएँ,
मंजिल हमें पुकार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।

बैठे हैं क्यूँ किनारे क्लांत ?
उतरें अतल में प्यारे शांत।

रहस्यों का नित खोज करके,
यह दुनिया उद्गार रही है। 
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें, 
पग-पग विपदा मार रही है। 

नभ में गिन रे! अनगिन तारे,
कोटि कोस चल शाम सकारे। 

बन अनंत यात्रा का साथी,
अपलक आँखें उघार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।

कोई रहे न क्षुधा से क्षुब्ध,
जगा पौरुष लिख दे प्रारब्ध।

अमानुषीय व्यवहार से अब, 
धरा द्रवित चित्कार रही है, 
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें, 
पग-पग विपदा मार रही है। 

दोहन से विलुप्त हुए जीव, 
महाप्रलय के पड़ गये नींव। 

कहीं सूखा और कहीं बाढ़,
कड़ी धूप फुँफकार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें, 
पग-पग विपदा मार रही है।

संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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