आओ मिलकर कदम बढ़ाएँ,
मंजिल हमें पुकार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।
बैठे हैं क्यूँ किनारे क्लांत ?
उतरें अतल में प्यारे शांत।
रहस्यों का नित खोज करके,
यह दुनिया उद्गार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।
नभ में गिन रे! अनगिन तारे,
कोटि कोस चल शाम सकारे।
बन अनंत यात्रा का साथी,
अपलक आँखें उघार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।
कोई रहे न क्षुधा से क्षुब्ध,
जगा पौरुष लिख दे प्रारब्ध।
अमानुषीय व्यवहार से अब,
धरा द्रवित चित्कार रही है,
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।
दोहन से विलुप्त हुए जीव,
महाप्रलय के पड़ गये नींव।
कहीं सूखा और कहीं बाढ़,
कड़ी धूप फुँफकार रही है।
सतत संघर्ष, उत्कर्ष करें,
पग-पग विपदा मार रही है।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)