एक पहर खुली आँखों से
सपना तुम्हारा
अगले पहर यादों की
झाँकियाँ,
एक पहर शुद्ध लिखता
जाता तुम्हें,
अगले पहर ढूँढ़ू उसमें
ग़लतियाँ।
एक पहर तुम्हें पढ़कर
ख़ुश होता,
अगले पहर अपनी तेज़ धड़कनें
गिनता मैं,
एक पहर मन की गहराई में
ले जाता तुम्हें,
अगले पहर वहीं बसाने तुम्हें
सोचता मैं।
ये हैं मेरे आठ पहर।
अब इससे ज़्यादा क्या मैं करूँ?
क्या तेरी ही याद में लिप्त रहूँ,
या फिर अगले आठ भी ऐसे करूँ?
प्रदीप सिंह 'ग्वल्या' - पौड़ी (उत्तराखंड)