राजेश राजभर - पनवेल, नवी मुंबई (महाराष्ट्र)
शर्मिंदगी - कविता - राजेश राजभर
रविवार, जून 01, 2025
मौन हो! तुम कौन हो?
क्यों छिपते हो, शर्मिंदगी की आड़ में।
एक नारी ही तो "नग्न" हुई,
आज भरे बाज़ार में!
मौन हो! तुम कौन हो?
नेता, अभिनेता, पहरेदार,
सामर्थ्यहीन, विवेकहीन,
अर्थहीन, तमाशबीन, सुधिहीन,
या फिर सब हो!
इसीलिए तो मौन हो?
इंसानियत रत्तीभर नहीं बची है
तुम्हारे नाम में,
उद्विग्नता खड़ी हैं अकेली व्योम में,
यूँ कहें– पुरज़ोर...
मानवता शर्मसार हो रही रोज़!
तुमने भी तो सुना होगा,
हर दिन, हर क्षण यह शोर,
देखा होगा, नारी की अस्मत लूटते,
चीख़ते, चिल्लाते, और मिटते!
मगर तुम्हारी रूह नहीं काँपी!
नारी के प्रति संवेदना नहीं जागी।
क्योंकि तुम जानवर से भी बदतर हो!
इसीलिए तो मौन हो!
अधिकारों का अथाह सागर,
परंतु चेतना मर चुकी है,
इसे कायरता की पराकाष्ठा ही कहेंगे,
नारी का सम्मान जल जाए,
बिखर जाए, उतर जाए...!
तुम्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है?
संसद नारी के बिना भी तो चलता है,
पुरुष प्रधान समाज के हिमायती,
सुनो! धृतराष्ट्र के दरबारियों,
आज पूर्वजों की आत्माएँ–
हमें धिक्कारती होगी,
तुम्हारी असमर्थता, एक और,
महाभारत के लिए ज़िम्मेदार होगी!
ज़रा भी नैतिकता बची है,
यदि तुम्हारे अभिमान में!
कठोर से कठोर क़ानून लाओ
"नारी" के सम्मान में!
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