जब झूमी कहीं बयार
घटाएँ नभ में छाईं,
तब याद तुम्हारी आई
निंदिया की गोदी में सोई
स्वप्नो से नाता जोड़ लिया,
स्मृतियाँ जागी अंतर की
आशा ने घूँघट खोल लिया,
क्रीड़ा में विगत हुई रजनी
उषा ने पलक उठाई,
तब याद तुम्हारी आई।
पिक कुहुक उठी अंतर की
हो उठा मुखर उर कानन,
उत्पल दल में हाँ विहंस उठा
तेरा सुरभित मधु आनन,
मन्जरियों की सर सर में दी
तेरी पदचाप सुनाई,
तब याद तुम्हारी आई।
नित अरुण क्षितिज हो जाता
दिन भर का अवसाद लिए,
विधु के संग संग ही नभ में
जल जाते हैं नक्षत्र दिये,
लेकिन मावस में ही
जब बिरही चकोर मुस्काई,
तब याद तुम्हारी आई।
ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना' - राउरकेला (ओड़िशा)