आकांक्षा - कविता - डॉ॰ रोहित श्रीवास्तव 'सृजन'

नीव की ईट
एक तरफ़ा प्रेमी की प्रीत
दबा ही दी जाती है
एक उठाता लंबी इमारत का बोझ
दूजा उठता कुछ न कह पाने की सोच
दोनों इतना दब जाते हैं
शायद अपना अस्तित्व ही खो जाते हैं
दोनों की तड़पन एक सी
दोनों की जलन एक सी
एक मिलना चाहता है अंबर से
दूजा मिलना चाहता है प्रियवर से
दोनों की है अपनी-अपनी मजबूरी
न जाने कब होगी
इनकी आकांक्षा पूरी?

डॉ॰ रोहित श्रीवास्तव 'सृजन' - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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