तुम मेरे सबसे समीप हो - कविता - बिंदेश कुमार झा

तुम मेरे सबसे समीप हो
फिर शब्दों की ध्वनि का क्या?
आत्मप्रेम का सम्मान मिलता है,
फिर व्यथा को साहस ही क्या?
यह जीवन जब सागर समान था,
तुम्हारे आगमन से मिठास भरा सरिता बन गया,
फिर प्रश्न उत्तर इस जीवन से
हटकर तुम में फिर मगन हो गया।
यह प्रेम मेरा बड़ा स्वार्थी है,
बदले का भाव ना मिले तो
टूट कर बिखर जाता है अगर
इसे अपने प्रेमी को लगाव ना मिले तो।
परंतु बिखरने के पश्चात भी इसका हर 
एक क्षण अपने प्रेमी को भूलता नहीं,
यह प्रेमयुक्त जीवन है
इसकी परिभाषा ही यही है।

बिन्देश कुमार झा - नई दिल्ली

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