दुख की सीमा घनीभूत है - कविता - संजीव चंदेल

दुख की सीमा घनीभूत है,
चारों ओर कंद्रन रोदन है।
ग़म की काली रात है देखो,
ये कैसा उत्पीड़न है।

मन कितना उद्वेलित है,
हर के जीवन में चिंता संकलीत है।
विश्वास भी अब दम तोड़ती,
हर व्यक्ति यहाँ भ्रमित है।

दर्द बाँचता फिरता हर कोई,
प्रतिपल जीता-मरता हर कोई।
संजीव तेरा काव्य रुआँसा क्यों?
मन तेरा क्यों दुखित है?

संजीव चंदेल - अकलतरा (छत्तीसगढ़)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos